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Sunday, December 10, 2017

हृदय परिवर्तन

🌹🌹 सुप्रभात 🌹 🌹

*⭕  हृदय परिवर्तन  ⭕*
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♦ एक राजा को राज भोगते हुए काफी समय हो गया था । बाल भी सफ़ेद होने लगे थे । एक दिन उसने अपने दरबार में एक उत्सव रखा और अपने गुरुदेव एवं मित्र देश के राजाओं को भी सादर आमन्त्रित किया । उत्सव को रोचक बनाने के लिए राज्य की सुप्रसिद्ध नर्तकी को भी बुलाया गया ।

♦ राजा ने कुछ स्वर्ण मुद्रायें अपने गुरु जी को भी दीं, ताकि यदि वे चाहें तो नर्तकी के अच्छे गीत व नृत्य पर वे उसे पुरस्कृत कर सकें । सारी रात नृत्य चलता रहा । ब्रह्म मुहूर्त की बेला आयी । नर्तकी ने देखा कि मेरा तबले वाला ऊँघ रहा है, उसको जगाने के लिए नर्तकी ने एक दोहा पढ़ा -
*"बहु बीती, थोड़ी रही, पल पल गयी बिताय।*
*एक पलक के कारने, क्यों कलंक लग जाय ।"*

♦ अब इस दोहे का अलग-अलग व्यक्तियों ने अपने अनुरुप अलग-अलग अर्थ निकाला । तबले वाला सतर्क होकर बजाने लगा ।

♦ जब यह बात गुरु जी ने सुनी तो  उन्होंने सारी मोहरें उस नर्तकी के सामने फैंक दीं ।

♦ वही दोहा नर्तकी ने फिर पढ़ा तो राजा की लड़की ने अपना नवलखा हार नर्तकी को भेंट कर दिया ।

♦ उसने फिर वही दोहा दोहराया तो राजा के पुत्र युवराज ने अपना मुकट उतारकर नर्तकी को समर्पित कर दिया ।

♦ नर्तकी फिर वही दोहा दोहराने लगी तो राजा ने कहा - "बस कर, एक दोहे से तुमने वैश्या होकर भी सबको लूट लिया है ।"

♦ जब यह बात राजा के गुरु ने सुनी तो गुरु के नेत्रों में आँसू आ गए और गुरु जी कहने लगे - "राजा ! इसको तू वैश्या मत कह, ये तो अब मेरी गुरु बन गयी है । इसने मेरी आँखें खोल दी हैं । यह कह रही है कि मैं सारी उम्र संयमपूर्वक भक्ति करता रहा और आखिरी समय में नर्तकी का मुज़रा देखकर अपनी साधना नष्ट करने यहाँ चला आया हूँ, भाई ! मैं तो चला ।" यह कहकर गुरु जी तो अपना कमण्डल उठाकर जंगल की ओर चल पड़े ।

♦ राजा की लड़की ने कहा - "पिता जी ! मैं जवान हो गयी हूँ । आप आँखें बन्द किए बैठे हैं, मेरी शादी नहीं कर रहे थे और आज रात मैंने आपके महावत के साथ भागकर अपना जीवन बर्बाद कर लेना था । लेकिन इस नर्तकी ने मुझे सुमति दी है कि जल्दबाजी मत कर कभी तो तेरी शादी होगी ही । क्यों अपने पिता को कलंकित करने पर तुली है ?"

♦ युवराज ने कहा - "पिता जी ! आप वृद्ध हो चले हैं, फिर भी मुझे राज नहीं दे रहे थे । मैंने आज रात ही आपके सिपाहियों से मिलकर आपका कत्ल करवा देना था । लेकिन इस नर्तकी ने समझाया कि पगले ! आज नहीं तो कल आखिर राज तो तुम्हें ही मिलना है, क्यों अपने पिता के खून का कलंक अपने सिर पर लेता है । धैर्य रख ।"

♦ जब ये सब बातें राजा ने सुनी तो राजा को भी आत्म ज्ञान हो गया । राजा के मन में वैराग्य आ गया । राजा ने तुरन्त फैसला लिया - "क्यों न मैं अभी युवराज का राजतिलक कर दूँ ।" फिर क्या था, उसी समय राजा ने युवराज का राजतिलक किया और अपनी पुत्री को कहा - "पुत्री ! दरबार में एक से एक राजकुमार आये हुए हैं । तुम अपनी इच्छा से किसी भी राजकुमार के गले में वरमाला डालकर पति रुप में चुन सकती हो ।" राजकुमारी ने ऐसा ही किया और राजा सब त्याग कर जंगल में गुरु की शरण में चला गया ।

♦ यह सब देखकर नर्तकी ने सोचा - "मेरे एक दोहे से इतने लोग सुधर गए, लेकिन मैं क्यूँ नहीं सुधर पायी ?" उसी समय नर्तकी में भी वैराग्य आ गया । उसने उसी समय निर्णय लिया कि आज से मैं अपना बुरा धंधा बन्द करती हूँ और कहा कि "हे प्रभु ! मेरे पापों से मुझे क्षमा करना । बस, आज से मैं सिर्फ तेरा नाम सुमिरन करुँगी ।"

समझ आने की बात है, दुनिया बदलते देर नहीं लगती । एक दोहे की दो लाईनों से भी हृदय परिवर्तन हो सकता है । बस, केवल थोड़ा धैर्य रखकर चिन्तन करने की आवश्यकता है ।

प्रशंसा से पिघलना नहीं चाहिए, आलोचना से उबलना नहीं चाहिए । नि:स्वार्थ भाव से कर्म करते रहें । क्योंकि इस धरा का, इस धरा पर, सब धरा रह जाएगा ।

Saturday, December 9, 2017

Sammā-sati—right-awareness

🌷Sammā-sati—right-awareness🌷
(awareness of the reality of the present moment.)

Of the past there can only be memories; for the future there can only be aspirations, fears, imaginations.

You have started practising sammā-sati by training yourself to remain aware of whatever reality manifests at this moment, within the limited area of the nostrils.

You must develop the ability to be aware of the entire reality, from the grossest to the subtlest level.

To begin, you gave attention to the conscious, intentional breath, then the natural, soft breath, then the touch of the breath.

Now you will take a still subtler object of attention: the natural, physical sensations within this limited area. You may feel the temperature of the breath, slightly cold as it enters, slightly warm as it leaves the body. Beyond that, there are innumerable sensations not related to the breath: heat, cold, itching, pulsing vibrating, pressure, tension, pain, etc.

You cannot choose, because you cannot create sensations.

Just observe; just remain aware.

🌷 The name of the sensation is not important; what is important is to be aware of the reality, without reacting to it.

The habit pattern of the mind, you have seen, is to roll in the future or in the past, generating craving or aversion.

By practising right awareness, you have started to break this habit.

Not that after this course you will forget the past entirely, and have no thought at all for the future.

But in fact you used to waste so much energy by rolling needlessly in past or future, and therefore when you needed to remember or plan something, you could not do so.

By developing sammā-sati, you will learn to fix your mind more firmly in the present reality, and you will find that you can easily recall the past when needed, and can make proper provisions for the future.

You will be able to lead a happy, healthy life.

http://www.vridhamma.org/Home

https://www.dhamma.org/en/courses/search

(--Summaries of Discourses by S. N. Goenka: Day Two)

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🌷"विपश्यना"🌷

जैसे आना पान की साधना में हमारा प्रयास नैसर्गिक सांस (natural breath) को देखने का होता है वैसे ही विपश्यना में शारीरिक संवेदनाओ को देखना मात्र है।

हम अपना ध्यान पुरे शरीर पर क्रम से सिर से पैर तक, और पैर से सिर तक, एक छोर से दूसरी छोर तक ले जाते हैं।

परंतु ऐसा करते हुए हम किसी विशेष संवेदना की खोज और अन्य प्रकार की संवेदनाओ से बचने का प्रयास नहीं करते हैं।

हमारा प्रयास केवल उन्हें तटस्थ भाव(equanimity) से देखना होता है।

🌷पूरे शरीर में जो भी संवेदना प्रकट होती है उसके प्रति जागरूक रहना है। वे किसी भी प्रकार की हो सकती हैं-- गर्मी, सर्दी, भारीपन, हल्कापन, खुजलाहट, धड़कन, दर्द, दबाव, कम्पन आदि।

किसी असाधारण(extraordinary) संवेदना की खोज नहीं करनी है, अपितु केवल स्वाभाविक रूप से होने वाली साधारण शारीरिक संवेदनाओ को देखने का प्रयास करना है।

किसी संवेदना के कारण की खोज का प्रयास नहीं किया जाता।

यह मौसम, बैठने की मुद्रा, किसी पुरानी बीमारी, शारीरिक कमजोरी, या जो भोजन खाया है उससे भी उत्पन्न हो सकती हैं।

कारण महत्वहीन है और हमारी चिंता के बाहर है(the reason is unimportant and beyond our concern).

🌷 प्रारम्भ में केवल स्थूल(intense) संवेदनाओ का ही अनुभव करते हैं पर हम शरीर के प्रत्येक भाग पर क्रम से ध्यान ले जाना जारी रखते हैं।

ऐसा करते हुए हम केवल प्रमुख संवेदनाओ पर ही अनावश्यक रूप से ध्यान नहीं देते बल्कि एकाग्रता को सिलसिलेवार ढंग से (systematic order) शरीर के हर अंग पर होने वाली संवेदना को जागरूक होकर देखने में करते हैं।

जहाँ संवेदना स्पष्ट नहीं है वहां से छलांग लगाकर हम वहां नहीं जाते जहाँ वह स्पष्ट है। और न हम कुछ संवेदनाओ को देर तक देखते रहते हैं, और न अन्य की उपेक्षा(avoid) करते हैं।

हम इस प्रकार धीरे धीरे उस बिंदु पर पहुँचते हैं जहाँ से शरीर के हर अंग पर होने वाली संवेदनाओ का अनुभव कर सकते हैं।

🌷 परंतु संवेदनाए चाहे सुखद हों या दुखद, स्थूल हो या सूक्ष्म(intense or subtle) साधना के लिये यह सब अप्रासंगिक(irrelevant) है।

हमारा काम केवल तटस्थ भाव से देखना है।

दुखद संवेदनाओ से जो भी कष्ट हो, सुखद संवेदनाओ का जो भी आकर्षण हो, हम अपना काम रोकते नहीं, हम किसी संवेदना विशेष से न तो आकर्षित होते हैं और न विकर्षित(repelled)।

हमारा काम अपने आपको केवल उसी प्रकार, उसी तटस्थता के साथ (detachment) निरीक्षण करना है जिस प्रकार एक वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला में निरीक्षण करता है।

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🌷विपश्यना:  ध्यान साधना की विधि 🌷

🌹जीवन में हर्ष- विषाद, सुख-दुःख के अवसर तो आते ही रहते हैं। इन स्थितियों में मानसिक संतुलन और समता बनाये रखने में ही जीवन की सफलता है।संसार में मनचाही, अनचाही होती ही रहती है।

विपश्यना ध्यान साधना की विधि ऐसी है जिसमे मन काया पर होने वाली संवेदनाओ को साक्षीभाव से, तटस्थ भाव से अनुभव करता है। विपश्यना न तो कोई जादू- टोना है और न ही सम्मोहन विद्या।

यह सत्य-दर्शन, अर्थात वर्तमान क्षण के यथार्थ को जानने की कला है, अंतर्मन की यात्रा है। मन में कोई विचार या विकार जागे तो उसके फलस्वरूप शरीर में उत्पन्न संवेदनाओ के प्रति राग या द्वेष न जगाकर समता भाव पुष्ट करना होता है।

विपश्यना जीवन के संघर्षो से पलायन नही, बल्कि जीवन के अभिमुख होकर समस्याओ का सामना करना सिखाती है।

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            🌷कर्म- विपाक🌷

विपश्यना साधना में जहाँ एक कर्म-विपाक का समूह उदीर्ण हुआ और प्रज्ञापूर्वक उसे क्षय कर लिया, वहां दूसरे कर्म- फलो का समूह तत्क्षण प्रकट होगा।

यों एक के बाद एक पुराने कर्मो के विपाक का ताँता लग जाता है। विपश्यना के प्रज्ञा- यज्ञ में उनकी आहुति लगती जाती है।यह क्रम जितनी देर तक चलता है, उतनी देर तक खिणन पुराणं होता रहता है।

परंतु जब कोई कर्म- विपाक अत्यंत घनीभूत पीड़ा के रूप में प्रकट होता है तो साधक की सारी सिट्टी- पिट्टी गुम हो जाती है, विद्या विलीन हो जाती है, प्रज्ञा क्षीण हो जाती है। पीड़ा के प्रति अम्मतव- भाव रख ही नहीं पाता। बौद्धिक स्तर पर भले अनित्य अनित्य करता रहे, परंतु वास्तविक स्तर पर ममत्व आ जाने के कारण उसे दूर करना चाहता है, और चाहने से वह दूर होती नहीं। अतः लगता है की यह तो नित्य है।

उस स्थूल ठोस पीड़ा की घनसंज्ञा नष्ट कर, सूक्ष्म प्रकम्पन की अनुभूति प्रज्ञामयी विपश्यना साधना के अभ्यास द्वारा ही होती है, जैसे कोई धुनिया कपास(रुई) की ग्रंथि को अपने धुनके के तार से प्रकम्पित कर खोलता है, कपास का एक एक तार अलग अलग कर देता है।

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🌹गुरूजी--

मेरे प्यारे साधक साधिकाओं!

धर्मप्रज्ञा जाग्रत रहे!
धर्मप्रज्ञा जाग्रत रखकर ही हम वर्तमान क्षण में जीना सिख सकेंगे।
यह क्षण जो की अभी अभी उतपन्न हुआ है, यही तो हमारे काम का है।
जो क्षण बीत चुके उनको हम याद भले कर लें, पर उनमे हम जी नही सकते।
जो क्षण अभी आये नही उनकी हम कल्पना या कामना भले कर लें परंतु उनमे हम जी नही सकते।
हमारे जीने के लिये तो यही क्षण है जो अभी अभी उत्पन्न हुआ है।
अगर हम इस क्षण में जीते हैं तो ही सही माने में जीते हैं, अन्यथा तो केवल जीने का बहाना करते हैं, वस्तुतः जीते नही।क्योंकि वर्तमान क्षण ही तो यथार्थ है और यथार्थ में जीना ही तो सही जीना है।

🌺इस नन्हे से क्षण में जीने की कला हासिल करने के लिये ही यह विपश्यना साधना है, जिसमे कि हम इस क्षण उत्पन्न होने वाली स्थिति को बिना भूत और भविष्य के साथ जोड़े हुए इसके यथार्थ स्वरुप में देख सकने का अभ्यास करते हैं।

13 ascetic practises

🌷13 ascetic practises (Dhutangas) 🌷

For those who like to keep a very strict disciplinary practise to augment their normal precepts observance, there are thirteen ascetic practises (Dhutangas) enumerated as follows:

       1) wearing robes made of rag cloths from the rubbish heap

       2) wearing only three robes

       3) living on food received by going on almsround

       4) begging food straight from house to house

       5) eating only once a day at one sitting

       6) eating from one vessel

       7) refusing (eating) of food in excess of the regulations

       8) dwelling in the woods

       9) dwelling at the root of a tree

       10) dwelling in the open air

       11) dwelling in or near a cemetery

       12) not altering the mat or bed when it has been spread out for sleeping on

       13) sleeping in a sitting position.

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🌷The thirteen dhutanga practices🌷

1. Refuse-rag-wearer's Practice (pamsukulik'anga) —

wearing robes made up from discarded or soiled cloth and not accepting and wearing ready-made robes offered by householders.

2. Triple-robe-wearer's Practice (tecivarik'anga) —

Having and wearing only three robes and not having additional allowable robes.

3. Alms-food-eater's Practice (pindapatik'anga) —

eating only food collected on pindapata or the almsround while not accepting food in the vihara or offered by invitation in a layman's house.

4. House-to-house-seeker's Practice (sapadanik'anga) —

not omitting any house while going for alms; not choosing only to go to rich households or those selected for some other reason as relations, etc.

5. One-sessioner's practice (ekasanik'anga) —

eating one meal a day and refusing other food offered before midday. (Those Gone Forth may not, unless ill, partake of food from midday until dawn the next day.)

6. Bowl-food-eater's Practice (pattapindik'anga) —

eating food from his bowl in which it is mixed together rather than from plates and dishes.

7. Later-food-refuser's Practice (khalu-paccha-bhattik'anga) —

not taking any more food after one has shown that one is satisfied, even though lay-people wish to offer more.

8. Forest-dweller's Practice (Araññik'anga) —

not dwelling in a town or village but living secluded, away from all kinds of distractions.

9. Tree-root-dweller's Practice (rukkhamulik'anga) —

living under a tree without the shelter of a roof.

10. Open-air-dweller's Practice (abbhokasik'anga) —

refusing a roof and a tree-root, the practice may be undertaken sheltered by a tent of robes.

11. Charnel-ground-dweller's Practice (susanik'anga) —

living in or nearby a charnel-field, graveyard or cremation ground (In ancient India there would have been abandoned and unburied corpses as well as some partially cremated corpses in such places.)

12. Any-bed-user's Practice (yatha-santhatik'anga) —

being satisfied with any dwelling allotted as a sleeping place.

13. Sitter's Practice (nesajjik'anga) —

living in the three postures of walking, standing and sitting and never lying down.

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🌷dhutānga🌷

(lit. 'means of shaking off (the defilements)');

'means of purification', ascetic or austere practices.

These are strict observances recommended by the Buddha to monks as a help to cultivate contentedness, renunciation, energy and the like.

One or more of them may be observed for a shorter or longer period of time.

"The monk training himself in morality should take upon himself the means of purification, in order to gain those virtues through which the purity of morality will become accomplished, to wit: fewness of needs,contentedness, austerity, detachment, energy, moderation, etc."
(Vis.M. II).

Vis.M. II describes 13 dhutangas, consisting in the vows of

1. wearing patched-up robes: pamsukūlik'anga,
2. wearing only three robes: tecīvarik'anga,
3. going for alms: pindapātik'anga,
4. not omitting any house whilst going for alms: sapadānikanga,
5. eating at one sitting: ekāsanik'anga,
6. eating only from the alms-bowl: pattapindik'anga,
7. refusing all further food: khalu-pacchā-bhattik'anga,
8. living in the forest: āraññik'anga,
9. living under a tree: rukkha-mūlik'anga,
10. living in the open air: abbhokāsik'anga,
11. living in a cemetery: susānik'anga,
12. being satisfied with whatever dwelling: yathā-santhatik'anga,
13. sleeping in the sitting position (and never lying down): nesajjik'anga.

These 13 exercises are all, without exception, mentioned in the old sutta texts (e.g. M. 5, 113; A.V., 181-90), but never together in one and the same place.

🌷"Without doubt, o monks, it is a great advantage to live in the forest as a hermit, to collect one's alms, to make one's robes from picked-up rags, to be satisfied with three robes" (A.I, 30).

The vow, e.g. of No. 1, is taken in the words: "I reject robes offered to me by householders," or "I take upon myself the vow of wearing only robes made from picked-up rags."

Some of the exercises may also be observed by the lay-adherent.

Here it may be mentioned that each newly ordained monk, immediately after his being admitted to the Order, is advised to be satisfied with whatever robes, alms-food, dwelling and medicine he gets: "The life of the monks depends on the collected alms as food ... on the root of a tree as dwelling ... on robes made from patched-up rags ... on stale cow's urine as medicine. May you train yourself therein all your life."

🌷Since the moral quality of any action depends entirely upon the accompanying intention and volition, this is also the case with these ascetic practices, as is expressly stated in Vis.M.

Thus the mere external performance is not the real exercise, as it is said (Pug. 275-84): "Some one might be going for alms; etc. out of stupidity and foolishness - or with evil intention and filled with desires - or out of insanity and mental derangement - or because such practice had been praised by the Noble Ones...." These exercises are, however properly observed "if they are taken up only for the sake of frugality, of contentedness, of purity, etc."(App.)

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🌷Kassapa Samyutta deal chiefly with Maha Kassapa's austere way of life, which was highly praised and commended by the Buddha.

But on one occasion the Buddha reminded Kassapa that he had now grown old, and that he must find his coarse, worn-out rag-robes irksome to use. Therefore, the Buddha suggested, he should now wear robes offered by householders, accept also their invitations for alms offerings, and live near him.

But Kassapa replied: "For a long time I have been a forest-dweller, going the almsround, and wearing rag-robes; and such a life I have commended to others. I have had few wants, lived contented, secluded, applying strenuous energy; and that too I have commended to others."

The Buddha asked: "But for what reason do you live so?"

Kassapa replied that he had two reasons:

1) his own well being here and now, and

2) his compassion for later generations which, when hearing about such a life, would emulate it.

Then the Buddha said: "Well spoken, Kassapa, well spoken! You have lived for the happiness of many, out of compassion for the world, for the benefit and welfare of gods and men. You may then keep to your coarse rag-robes, go out for alms, and live in the forest "
(S.16.5).

"This our Kassapa," said the Buddha, "is satisfied with whatever robes, almsfood, lodging, and medicine he obtains. For the sake of these he will not do anything that is unbefitting for a monk. If he does not obtain any of these requisites, he is not perturbed; and when he obtains them, he makes use of them without clinging or infatuation, not committing any fault, aware of (possible) dangers and knowing them as an escape (from bodily affliction). By the example of Kassapa, or by one who equals him, I will exhort you, monks. Thus admonished, you should practice in the same way"
(S.16: 1).

Friday, December 8, 2017

वेलाम सुत्त

*वेलाम सुत्त* :
*(अंगुत्तर निकाय)*

*एक बार तथागत भगवान बुद्ध अनाथपिण्डिक से बोले :*

       *अन्नदान रूखा-सूखा हो या उत्तम, जब वह अन्नदान श्रद्धा पुर्ण चित्त से, सत्कारपूर्वक, प्रसन्न मन से, शुद्ध चित्त से, अपने हाथ से दिया जाने पर, "यह पुनः लौटेगा" ऐसा सोचकर दिया जाने पर, उस दान का बहुत अच्छा फल प्राप्त होता है ।*

       उस दान के परिणामस्वरूप दाता को लंबे समय तक, अनेक जन्मों तक अच्छा भोजन, अच्छे वस्त्र, अच्छा यान उपलब्ध होते हैं । अधिक से अधिक पञ्चकामभोग उपलब्ध होते हैं । उसके स्त्री, पुत्र, पौत्र, परिवार जन, नौकर भी धर्म श्रवण में मन लगाते हैं । धर्म को जानने, समझने का प्रयास करते हैं । वह किस लिये ? वह इसलिए कि, श्रद्धा पुर्ण चित्त से, सत्कारपूर्वक, प्रसन्न मन से, शुद्ध चित्त से, अपने हाथ से दिये दान का यही फल होता हैं ।

       *लेकिन अगर वह अन्नदान अश्रद्धा पुर्ण चित्त से, असत्कारपूर्वक, अप्रसन्न मन से, अशुद्ध चित्त से दिया जाने पर, अपने हाथ से न दिया जानेपर, फेंक कर दिया जाने पर,  "यह पुनः लौटकर नहीं आयेगा" ऐसा सोचकर दिया जाने पर, उस दान का बहुत अच्छा फल नहीं प्राप्त होता है ।*
उस दान के परिणामस्वरूप न दाता को अच्छा भोजन, अच्छे वस्त्र, अच्छा यान उपलब्ध होते हैं । न उसके स्त्री, पुत्र, पौत्र, परिवार जन, नौकर धर्म श्रवण में मन लगाते हैं । न धर्म को जानने, समझने का प्रयास करते हैं । वह किस लिए,  वह इसलिए कि, अश्रद्धा पुर्ण चित्त से, असत्कारपूर्वक, अप्रसन्न मन से, अशुद्ध चित्त से दिये दान का यही फल होता है ।

      पहले कभी कोई वेलाम नामक ब्राह्मण हुआ था ।
उसने ऐसा महादान किया था : चौरासी हजार कन्या दान, चांदी से भरी हुई चौरासी हजार सोने की थालीयाँ, सोने से भरी हुई चौरासी हजार चांदी की थालीयाँ, सोने से भरी हुई चौरासी हजार कांस्य की थालीयाँ, विविध स्वर्णालंकारों से मण्डित, सुवर्ण ध्वजा युक्त तथा सुवर्ण जाल निर्मित लवादा से आच्छादित चौरासी हजार हाथी, सिंहचर्म, व्याघ्रचर्म तथा द्वीपचर्म से आवृत्त, विविध स्वर्णालंकारों से मण्डित, सुवर्ण ध्वजा युक्त तथा सुवर्ण जाल निर्मित लवादा से आच्छादित चौरासी हजार रथ, चौरासी हजार गौएं, चौरासी हजार महल (सभी मुल्यवान सामग्री से संपन्न) दान दिया ।
खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य आदि खाने पीने के पदार्थों की तो कोई कमी ही नहीं थी । मानो उनकी नदीयाँ बह रही हो । इतना बड़ा महा दान किया था ।

बुद्ध आगे बोले: गृहपति, वह वेलाम नामक ब्राह्मण कोई और नहीं, बल्कि मैं ही वह वेलाम नामक ब्राह्मण था ।मैने ही वह महा दान किया था । उस समय दान से कोई भी वंचित नहीं रह गया था ।

गृहपति, वेलाम ब्राह्मण के उस *महा दान से भी अधिक फलप्रद है- किसी सम्यक दृष्टि संपन्न (श्रोतापन्न) एक  भिक्षु को (साधक को) श्रद्धा पुर्ण चित्त से एक बार का दिया हुआ भोजन दान ।*

100 श्रोतापन्न को दिए भोजन दान से भी अधिक फलप्रद है एक सकृदागामी को एक समय का भोजन दान ।

*100 सकृदागामी को दिए भोजन दान से भी अधिक फलप्रद है एक अनागामी को एक समय का भोजन दान ।*

100 अनागामी को दिए भोजन दान से भी अधिक फलप्रद है एक अरहंत को एक समय का भोजन दान ।

*100 अरहंत को दिए भोजन दान से भी अधिक फलप्रद है एक पच्चेकबुद्ध को एक समय का भोजन दान ।*

100 पच्चेक बुद्धों को दिए भोजन दान से भी अधिक फलप्रद है एक सम्यक सम्बुद्ध को एक समय का भोजन दान ।

*सम्यक संबुद्ध को दिए भोजन दान से भी 100 गुना  अधिक फलप्रद है बुद्ध प्रमुख भिक्षु संघ को भोजन दान ।*

भिक्षु संघ को दिए भोजन दान से भी अधिक फलप्रद है, सभी दिशाओं के भिक्षु संघ के लिए बुद्ध प्रमुख भिक्षु संघ को विहार का दान ।

*बुद्ध प्रमुख भिक्षु संघ को दिए विहार दान से भी अधिक फलप्रद है- पांच शीलोंका का दृढ़ता से पालन करते हुए सदा के लिए बुद्ध, धर्म और संघ के प्रति समर्पित होना ।*

उससे भी अधिक फलप्रद है गंधमात्र भी मंगल मैत्री की भावना करें ।

*उस से भी अधिक फलप्रद है चुटकी बजाने जितने समय के लिए भी या पलक झपके इतने समय के लिए भी अनित्य-संज्ञा की भावना करें (अनित्यबोध हो) ।*

*🌷सबका मंगल हो 🌷*
           🙏🏻🙏🏻🙏🏻

साधना पथ पर प्रगति

💐💐   साधना पथ पर प्रगति   💐💐

मन प्रतिक्षण सक्रिय रहता है। साधना के समय मन पर बार-बार विचारों का आक्रमण होता रहता है।

ऐसे में यदि एक क्षण भी वर्तमान में स्थापित होता है तो बड़ा आराम महसूस होता है उसमें शक्ति है, मौन है, परम आनंद है।

उसके बाद ऐसे क्षणों की अवधि बढ़ाने की कोशिश करनी होती है।

वह कैसे करनी होगी ?

इस समय हम जो काम कर रहें हैं उसके प्रति जागरूक रहना होगा।

जैसे की हम चल रहें हैं तो चल रहे हैं, खा रहे हैं तो खा रहे हैं, लिख रहें हैं तो लिख रहें है, पढ़ रहें हैं तो पढ़ रहें हैं।

यों हर क्रिया के प्रति जागरूक रहना होगा। यह एक मानसिक व्यायाम ही है। परंतु साधना के लिये आवश्यक है।

चित्त में पुराने दबे हुए संस्कारों के अनेक आवरण हैं और प्रतिक्षण नए संस्कारों की वृद्धि के बीच ऐसे वर्तमान के क्षण में स्थिर रहना बहुत ही कठिन है। फिर भी बहुत महत्त्व का है।

ऐसे तूफ़ान में से वर्तमान क्षण पर स्थिर होने के प्रति प्रस्थान करना, आरूढ़ होना इसी का नाम सतिपठान है।

स्मृति में स्थापित होने पर भीतर चोर की भाँति छिप कर बैठे हुए वासना आदि के सारे विकार आहिस्ता-आहिस्ता बाहर निकल जाते हैं।

साधना करते करते कितने सारे विक्षेप साधक के अंदर में उठते हैं। उस समय समता धारण करना जरुरी है।

थोड़ी सी बैचनी, क्रोध या राग-द्वेष किये बिना समता को पुष्ट करने से, विक्षेपों की उपेक्षा करने से, साधना पथ पर प्रगति होती रहती है।

🌹🌹🌹  सबका मंगल हो  🌹🌹🌹

Is it against morality to kill an enemy if you are a member of the armed forces

#Vipassana #Meditation #SNGoenka

Q: Is it against morality to kill an enemy if you are a member of the armed forces?

A: Yes. But at the same time, the army is necessary for the protection of the country, for the protection of the civilians. The army should not be used just to kill others. It should be used to show the strength of the country, so that an enemy cannot even have the thought of being aggressive and harming people. Therefore, the army is necessary. But not to kill, just to show strength. If somebody is harming the country, then the first thing to do is to give a warning. Otherwise, if it becomes necessary, action has to be taken. But then again, the soldiers have to be trained not to have anger, not to have animosity. Otherwise, their minds will become unbalanced, all their decisions will go wrong. With a balanced mind, we can take good decisions, right decisions, which will be very helpful to us and helpful to others.

राधे राधे

कृष्ण और राधा स्वर्ग में विचरण करते हुए
अचानक एक दुसरे के सामने आ गए

विचलित से कृष्ण-
प्रसन्नचित सी राधा...

कृष्ण सकपकाए,
राधा मुस्काई

इससे पहले कृष्ण कुछ कहते
राधा बोल उठी-

"कैसे हो द्वारकाधीश ??"

जो राधा उन्हें कान्हा कान्हा कह के बुलाती थी
उसके मुख से द्वारकाधीश का संबोधन कृष्ण को भीतर तक घायल कर गया

फिर भी किसी तरह अपने आप को संभाल लिया

और बोले राधा से ...

"मै तो तुम्हारे लिए आज भी कान्हा हूँ
तुम तो द्वारकाधीश मत कहो!

आओ बैठते है ....
कुछ मै अपनी कहता हूँ
कुछ तुम अपनी कहो

सच कहूँ राधा
जब जब भी तुम्हारी याद आती थी
इन आँखों से आँसुओं की बुँदे निकल आती थी..."

बोली राधा -
"मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ
ना तुम्हारी याद आई ना कोई आंसू बहा
क्यूंकि हम तुम्हे कभी भूले ही कहाँ थे जो तुम याद आते

इन आँखों में सदा तुम रहते थे
कहीं आँसुओं के साथ निकल ना जाओ
इसलिए रोते भी नहीं थे

प्रेम के अलग होने पर तुमने क्या खोया
इसका इक आइना दिखाऊं आपको ?

कुछ कडवे सच , प्रश्न सुन पाओ तो सुनाऊ?

कभी सोचा इस तरक्की में तुम कितने पिछड़ गए
यमुना के मीठे पानी से जिंदगी शुरू की और समुन्द्र के खारे पानी तक पहुच गए ?

एक ऊँगली पर चलने वाले सुदर्शन चक्रपर भरोसा कर लिया
और
दसों उँगलियों पर चलने वाली
बांसुरी को भूल गए ?

कान्हा जब तुम प्रेम से जुड़े थे तो ....
जो ऊँगली गोवर्धन पर्वत उठाकर लोगों को विनाश से बचाती थी
प्रेम से अलग होने पर वही ऊँगली
क्या क्या रंग दिखाने लगी ?
सुदर्शन चक्र उठाकर विनाश के काम आने लगी

कान्हा और द्वारकाधीश में
क्या फर्क होता है बताऊँ ?

कान्हा होते तो तुम सुदामा के घर जाते
सुदामा तुम्हारे घर नहीं आता

युद्ध में और प्रेम में यही तो फर्क होता है
युद्ध में आप मिटाकर जीतते हैं
और प्रेम में आप मिटकर जीतते हैं

कान्हा प्रेम में डूबा हुआ आदमी
दुखी तो रह सकता है
पर किसी को दुःख नहीं देता

आप तो कई कलाओं के स्वामी हो
स्वप्न दूर द्रष्टा हो
गीता जैसे ग्रन्थ के दाता हो

पर आपने क्या निर्णय किया
अपनी पूरी सेना कौरवों को सौंप दी?
और अपने आपको पांडवों के साथ कर लिया ?

सेना तो आपकी प्रजा थी
राजा तो पालाक होता है
उसका रक्षक होता है

आप जैसा महा ज्ञानी
उस रथ को चला रहा था जिस पर बैठा अर्जुन
आपकी प्रजा को ही मार रहा था
आपनी प्रजा को मरते देख
आपमें करूणा नहीं जगी ?

क्यूंकि आप प्रेम से शून्य हो चुके थे

आज भी धरती पर जाकर देखो

अपनी द्वारकाधीश वाली छवि को
ढूंढते रह जाओगे
हर घर हर मंदिर में
मेरे साथ ही खड़े नजर आओगे

आज भी मै मानती हूँ

लोग गीता के ज्ञान की बात करते हैं
उनके महत्व की बात करते है

मगर धरती के लोग
युद्ध वाले द्वारकाधीश पर नहीं, i.
प्रेम वाले कान्हा पर भरोसा करते हैं

गीता में मेरा दूर दूर तक नाम भी नहीं है,
पर आज भी लोग उसके समापन पर " राधे राधे" करते है".

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