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Sunday, November 17, 2019

कर्म-सिद्धांत और उनके फल

कर्म-सिद्धांत और उनके फल 

{ यह लंबा पत्र पूज्य गुरुदेव ने बर्मा से भारत आकर बसे अपने छोटे भाई राधेश्याम को लिखा था l यह पत्र साधको के लाभर्थ प्रकाशित किया जा रहा है l } 

रंगून’ 10-09-1966 
प्रिय राधे आशीष!     
तुम्हारा 29-08-66 का पत्र मिला । इसके पूर्व भी एक पत्र में कर्म-सिद्धांत पर उठाये गये तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देना बाकी है। पहले उसी प्रश्न से निपट लूं।

‘मिलिंद प्रश्न" में राजा मिलिंद ने भिक्षु नागसेन के सन्मुख यह प्रश्न उपस्थित क्रिया था। मिलिंद के प्रश्न का नागसेन ने जो उत्तर दिया उसके मुताबिक यह सिद्ध हुआ कि जो बिना जाने पाप करता है, उसे अधिक पाप लगता है। मिलिंद के प्रश्न को और नागसेन के संक्षिप्त उत्तर को एक और रख कर हम इस जाने और अनजाने किये गये पापों के संबंध में जरा विस्तार तो समझने का प्रयत्न करें । मैं इस समस्या को तीन भागों में बांट देना चाहता हूँ ।

सर्वप्रथम हम बुद्धकालीन उस अरहंत भिक्षु की चर्चा करें जो चक्षु-विहीन है और प्रात: ब्रह्म-मुहुर्त में उठ कर अपनी कुटिया के सामने घास के मैदान में चहल-कदमी करता हुआ अपनी स्मृति कायम रखता है। उसकी इस चहल-कदमी से धरती पर चलने वाली कुछ एक बीर-बहूटिया दब कर मर जाती हैं जिसकी उस को किंचित भी जानकारी नहीं होती । आसपास के लोग इस बात देख कर भगवान के पास शिकायत लेकर जाते हैं कि अमुक भिक्षु चहल-कदमी करते हुए जीव-हिंसा के दोष का भागी बन रहा है।
भगवान उन शिकायत करने वालों को फटकारते हुए उस भिक्षु को निर्दोष सिद्ध करते है । एक तो इसलिए कि यह चक्षु-विहीन है, अत: नहीं जानता कि उसके पाँव के नीचे दब कर किसी भी जीव की हत्या हो गयी है । दूसरे यह अरहंत है, अत: उसके मन में किसी भी प्राणी की हिंसा करने की वृत्ति उत्पन्न ही नहीं हो सकती ।

हमारे लिए पहला भाग ही अधिक महत्त्व का है क्योंकि अरहंत नहीं होने के कारण यहीं हमसे अधिक संबंधित है । हम भी इसी प्रकार अनजाने में कितने ही प्राणियों की हिंसा चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते और यहाँ तक कि श्वास लेते-छोड़ते हुए करते रहते है । मैं नहीं मानता कि यह हिंसा हमें किसी प्रकार के भी पाप का भागी बनाती है ।

जब तक हिंसा करने के लिए हमारे मन में हिंसक वृति नहींउत्पन्न होती - ऐसी वृत्ति जो हमें सक्रिय हिंसा करने के लिए प्रेरित करती है और हिंसा कर लेने के बाद संतोष और प्रसन्नता का भाव प्रकट करती है - ऐसी हिंसक वृत्ति के अभाव में की गई हिंसा पापमयी हिंसा नहीं ही कही जा सकती । परंतु कुछ लोग हिंसा को खींच कर अतियों तक ले जाते है और उससे बचने के लिए कई प्रकार के उपक्रम करते है। वे नहीं समझते कि ऐसे उपक्रम सूक्षम हिंसा से बचा नहीं सकते, बल्कि बढा भी सकते है । इसीलिए भगवान बुद्ध ने मध्यम मार्ग अपनाया। व्यक्ति यथासंभव सजग हो और मन में हिंसक वृति न हो, यहीं पर्याप्त है ।

अब हिंसा का एक उदाहरण लें। बार-बार एक मक्खी या मच्छर हमारे मुँह के पास आकर भनभना जाता है । उसकी इस क्रिया से हमारा सिर भन्ना उठता है और क्रोध में झल्लाते हुए हम दोनों हाथों से ताली पीट कर उस मच्छर या मक्खी को मसल देने का प्रयत्न करते है। बार-बार के इस प्रयत्न से भी यह मच्छर या मक्खी हमारी ताली की पकड़ में न आये तो इससे हमारी झुंझलाहट और बढती है। हम अधिक सचेष्ट होते है और किसी प्रकार प्रयत्न करके उसे आखिर पीस ही देते हैं । ऐसा कर लेने के बाद मन में एक प्रकार का आत्मसंतोष और आह्लाद उत्पन्न होता है । यह हिंसा हुई ।
अब इस हिंसा के दो भाग करें । एक व्यक्ति ऐसी हिंसा करते हुए यह नहीं जानता, मानता कि मैं पापकर्मं कर रहा हूँ । उसे इस कार्य में आह्लाद होता है और उसका मन बार-बार करने के लिए प्रेरित होता है। एक अन्य व्यक्ति भी यही कर्म करता है, परंतु वह जानता है कि यह पापकर्म कर रहा है अत: क्रोध और झुंझलाहटबश हिंसा कर तो देता है पर जरा झिझकता है और हिंसा कर देने के बाद भी जरा-सा पश्चाताप करता है । अत: जितने क्षण यह झिझक में निकालता है अथवा पश्चाताप में निकालता है, उतने क्षण तो कुशल क्षण है, अकुशल नहीं । दूसरी ओर पाप न मानता हुआ बेझिझक  और बिना पश्चात्ताप के हिंसा करने वाला व्यक्ति शत-प्रतिशत पाप का भागी है । अत: पहले से अधिक दोषी हुआ ही । नागसेन ने इसी को ध्यान में रख कर मिलिंद को उत्तर दिया होगा और इसी कारण मिलिंद संतुष्ट हुआ होगा ।

बुद्ध की साधना में मन को बहुत महत्त्व दिया गया है - "मनोपुब्बड़गमा धम्मा, मनोसेठ्ठा मनोमया" । इसीलिए कायिक और वाचिक कर्मों की तुलना में मानसिक कर्म का महत्व अधिक माना गया है । हर एक कायिक और वाचिक कर्म को उस समय की हमारी मानसिक स्थिति से आंका-तोला जाता है और उसी के अनुसार पाप या पुण्य की मात्रा कम या अधिक मानी जाती है। इस परिपेक्ष्य में विभिन्न प्रकार की हिंसाओ के फल को समझा जा सकता है जैसे -
1- एक डाकू धन के लोभ में किसी राहगीर के पेट में चाकू मार बार उसकी हत्या बार देता है ।
2- ऐसे की कोई डॉक्टर ओँपरेशन थियेटर में किसी रोगी के पेट का आपरेशन करता है और ऐसा करते हुए रोगी की मृत्यु का कारण बन जाता है ।

इन दोनों की मानसिक स्थिति में कितना बडा अंतर है । प्रकृति दोनों की मनोस्थिति के अनुकूल ही उनके कर्मों का फल देगी । इसमें कोई संदेह या दो राय नहीं हो सकती ।

विश्वास है कर्म और कर्मफल की व्याख्या समझ में आ गयी होगी । यदि फिर भी कोई प्रश्न उठे तो दुबारा लिख कर पूछना चाहिए ।

 साशीष स० न० गोयनका

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