BEST GAMES

Thursday, November 14, 2019

Questions and answers with Goenka Guruji from Art of living book by William Hart.

Questions and answers with Goenka Guruji from Art of living book by William Hart.

 Que: 
What we are burning out is the sensations on the body—the body door. But what do you do with the things which come to the other four senses, the sounds or tastes or smells or visions? 

Ans : 
Yes I understand. Those which come with sound or taste, they come just occasionally. All the time, you can’t feel them. 

But the sensation which is pertaining to body and mind is constant when we are alive. 

So if you want to get established in the practise, there must be something constantly happening. 
Otherwise you start working in the air: a sound has come, and then again no sound; and you wait until another sound comes. You can’t 
practise like that. 

So for practice—the contact of mind and matter producing vedana—these sensations—you practise with that. 
And then when you get established then it becomes easy. 
Anything comes—a sound—and a sensation is there, and you are so accustomed to feel the sensations, it is so easy.

Que - How about 
the different yogic breathing exercises?

Ans - They are helpful as physical exercise, but do not mix these techniques with ānāpāna. In ānāpāna you must observe natural breath at it is, without controlling it. Practise breath control as a physical exercise, and practise ānāpāna for meditation.

Que - 
Am I—is not this bubble—becoming attached to enlightenment?

Ans - 
If so, you are running in the opposite direction from it. You can never experience enlightenment so long as you have attachments. Simply understand what enlightenment is. Then keep on observing the reality of this moment, and let enlightenment come. If it does not come, don't be upset. You just do your job and leave the result to Dhamma. If you work in this way, you are not attached to enlightenment and it will certainly come.

Que - Then I meditate just to do my work?

Ans - Yes. It is your responsibility to cleanse your own mind. Take it as a responsibility, but do it without attachment.

Que - It's not to achieve anything?

Ans - No. Whatever comes will come by itself. Let it happen naturally.

Be Happy.
-----------------------------------



विपश्यना संबंधी गोयंका गुरूजी के साथ प्रश्नोत्तर 

प्रश्न:- आपने बताया है कि जब पुराने संस्कार निकलेंगे तो संवेदना पैदा करके ही निकलेंगे । ऐसा क्यों होता है? यदि यह कुदरत का कानून है तो कैसे जांचें और कैसे मानें?

उत्तर:- क्योंकि संस्कार जब बनते हैं तब संवेदना के साथ ही बनते है । जिस प्रकार की संवेदना से कोई संस्कार बना है, बाहर निकलेगा तो उसी प्रकार की संवेदना के साथ निकलेगा । एक उदाहरण से समझें - कि कोई कांटा चुभा, कांटा चुभा तो दर्द हुआ ।अब उस कांटे को बाहर निकलना है तो सूई चुभा करके ही उसको बाहर निकलेंगे, तब भी उतना ही दर्द होगा । चुभन के वक्त जो दर्द हुआ था निकालने के वक्त भी वही दर्द होगा। इसी प्रकार संस्कार बनाते वक्त जिस प्रकार की संवेदना हुई थी, उसको निकलते वक्त उसी प्रकार की संवेदना होगी, ऐसा नियम है ।

प्रश्न:- आप अपने प्रवचनों में बतलाते हैं कि कर्मफल संवेदना के रूप में आता है । यह बात समझ में नहीं आई । क्योकि संवेदनाएं तो शरीर का स्वभाव हैं, कई कारणों से आ सकती हैं । तो फिर उनको पिछले कर्मो का फल क्यों मानें? क्या यह मानने की बात है ?

उत्तर:- जरूरी नहीं है। सारी संवेदनाएं कर्मसंस्कारों की घोतक नहीं हैं । भगवान बुद्ध ने संवेदनाओं की उत्पत्ति के कईं कारण बताए हैं l उनमें से एक कर्मंसंस्कार है। किन्तु जब आप ध्यान करते हो तब ज्यादातर कर्मंसंस्कार संवेदनाओं के रूप में प्रकट होने के घोतक हैं । अन्यथा तो आपने जो भोजन लिया है या आपकी कोई बीमारी के कारण दर्द है या चलते हुए कहीं ठोकर लग जाने से पीडा हुई … इसमें पुराने संस्कारों से कया मतलब है ? ये सब नये संस्कार हैं। हम असावधानी से चले, ठोकर लग गई । हमने कोई गलत भोजन कर लिया, उसकी वजह से पेट दुखने लगा ; यह नया कर्म है हमारा । तो सारी संवेदनाएं हमारे पुराने संरकारों की हों, ऐसा मानकर नहीं चलें । हमें तो यह देखना है कि किसी भी कारण से संवेदना जागी, कारण कोई भी हो, किसी भी प्रकार की संवेदना महसूस कर रहे हो, हम तो
समता में हैं, कोई नया (संस्कार) नहीं बना रहे । नया नहीं बना रहे तो पुराने का संवर्धन होना बंद हो गया, अन्यथा संवर्धन होता जाता है । संवेदना इस कारण से हो या उस कारण से - आप यदि समता में स्थित हैं, कोई प्रतिक्रिया नहीं कर रहे, और नया कर्मसंस्कार नहीं बना रहे तो आपका उद्देश्य सध गया और आप प्रगति कर रहे है ।

प्रश्न:- विचारों के आवेश को कैसे शांत करें ? मन को किस प्रकार विचार-विमुक्त करें ?

उत्तर:- जिस समय देखी कि विचार इतने अधिक आ रहे हैं कि हम संवेदना देख ही नहीं पाते तो ‘आनापान ज्यादा करो । आनापान करते हुए भी सांस को जरा तेज़ कर लो । ऐसा करते-करते मन थोडा टिकने लगा तो सांस के साथ-साथ चक्कर लगाओ l सांस भी जान रहे हो, संवेदना भी ; सांस भी जान रहे हो, संवेदना भी... तो मन के भागने का काम जरा कम हो जायगा, अपने आप कम हो जायगा ।

प्रश्न- मन बिना विचारों के नहीं रह सकता । कया चिंतन-रहित रहने के लिए ही मन को सांस और संवेदनाओं पर लगाते हैं ?

उत्तर:- चिंतन-रहित हो जाये हैं निर्विचार हो जाये, बड़ी अच्छी बात है । लेकिन अगर निर्विचार नहीं हैं और हम संवेदना को जाने जा रहे हैं - संवेदना को भी जानते हैं और इस सच्चाई को भी कि मन में कुछ कोलाहल चल रहा है । उसके विवरण में नहीं लग जाये कि क्या कोलाहल चल रहा है, क्या चिंतन चल रहा हे? तब तो संवेदना को भूल जायेंगे, सांस को भूल जायेंगे । हमारे लिए प्रमुख सांस या संवेदना है और यह सच्चाई है कि इस वक्त मन में कोलाहल भी चल रहा है । इसे स्वीकार करें- कोलाहल चल रहा है, बस इतना ही । उसको ले करके व्याकुल न हो और उसकी detail में नहीं जाये, तो कोई हानि नहीं हुई । कर्म-संस्कार तो उन विचारों की वजह से भी बनेंगे, पर पानी की लकीर जैसे बन कर निकल जायेगे । और संवेदना को भूल जाओगे तो यहीं पानी की लकीर, बालू की लकीर होती जायगी, पत्थर की लकीर होती जायगी ।

प्रश्न- मैं पिछले कुछ समय से केवल आनापान का रहा हूँ । जब तक आनापान में पूरी एकाग्रता न जा जाय तब तक विपश्यना करना बेकार है । कया यह सही है ?

उत्तर- पूरी एकाग्रता नहीं आई लेकिन फिर भी संवेदना मिलने लगी तो संवेदना के साथ एकाग्रता आ जायगी । सांस को भी जानेंगे, संवेदना को भी जानेंगे और यूं जानते-जानते एकाग्रता अपने आप आने लगेगी। मन एकदम एकाग्र हो जाय, उसके बाद विपश्यना करोगे तो बहुत समय लगेगा। इसलिए विपश्यना को छोडो मत संवेदना नहीं मिल रही हो तब आनापान करना ही चाहिए। 
तब विपश्यना नहीं कर पाओगे ।

प्रश्न- आनापान करते समय हमें यह कैसे पता चले कि हमारी समाधि मजबूत हो गई है और अब विपश्यना शुरू कर देनी चाहिए ?

उत्तर- जैसे ही मन का कोलाहल कम पड़ जाय और जैसे ही यहाँ (ऊपर वाले होंठे के ऊपर, नाशिका के नीचे) संवेदना मिलनी शुरु हो जाय... । अगर यहीं संवेदना नहीं मिली तो अभी रुको । और यहीं संवेदना मिलने लगी तो फिर सारे शरीर की विपश्यना शुरु कर सकतें हो, चिन्ता की बात नहीं है।

प्रश्न- संवेदना मालूम पड़ती है पर उसका उदय-व्यय नहीं मालूम पड़ता, कया करें?

उत्तर- संवेदना का अर्थ ही कुछ बदल रहा है भीतर ही भीतर । संवेदना क्या है ? भीतर खटपट हो रही है तो संवेदना है । जो कुछ हो रहा है इसका अर्थ यहीँ है कि कुछ बदल रहा है । बहुत स्पष्ट रूप से--- यह उदय हुआ और यह व्यय हो गया, यह उदय हुआ यह व्यय हो गया, समझने में अभी देर लगती है तो कौई हर्जा नहीं । कुछ घटना घट रही है, यहीं पर्याप्त है । यह इस बात का सबूत है कि भीतर कुछ बदल रहा है । ऐसा नहीं है कि यह स्थायी (स्टेटिक) है और अंदर कुछ नहीं हो रहा, कुछ नहीं बदल रहा- ऐसी बात नहीं है ।

प्रश्न:- विपश्यना और सम्मोहन में कितना साम्य या फर्क है ?

उत्तर:- जमीन आसमान का फर्क है, पूरब और पश्चिम का फर्क है । हर तरह के suggestion, Auto-suggestion या out of suggestion हो--- एक कल्पना हमारे सिर पर चढ़ती है और जैसे-जैसे कल्पना चढे, चित्त उसी प्रकार महसूस करने लगता है। गुलाम हो गया न । और यह अपने आपको देखता है किसी का गुलाम नही मालिक है । खुद सच्चाई का मालिक है, धर्म का मालिक है, खुद अपने आप का मालिक है। भीतर जो हो रहा है उसी को देखते हुए अपने आपको सुधारता है । इस प्रकार दोनों में बहुत बड़ा अंतर है ।

प्रश्न- ईश्वर क्या है ? कहां है ? कौन है ? कैसा है ?

उत्तर:- हम क्या कहें भाई ? हम तो कहते हैं सत्य ही ईश्वर है । परम सत्य ही परमेश्वर है । अरे, अपने भीतर की सच्चाई को देखने लगे और देखते-देखते चित्त और शरीर, इन दोनों की सारी सच्चाई देख ली। स्थूल से स्थूल, वहाँ से शुरू करके सूक्षम से सूक्षम - सारा प्रपंच देख लिया इसका अतिक्रमण करके शरीर औरे चित्त के परे जो इन्द्रियातीत अवस्था है, उस अवस्था पर पहुंच गये, जो नित्य है, शाश्वत है, ध्रुव है ; उसका कोई नाम नहीं, उसका कोई रूप नहीं, आकृति नहीं---- उसका साक्षात्कार हो गया तो अपने आप ईश्वर का साक्षात्कार हो गया । यह साक्षात्कार करना चाहिए । केवल बुद्धि से मानने और न मानने से कोई बात बनती नहीं ।

प्रश्न- मानसिक चिन्ता हटाने में क्या विपश्यना काम करती है ? हाँ तो कैसे ?

उत्तर:- इसीलिए विपश्यना है। चिन्ता का मतलब यही हुआ कि जो चिंतन चल रहा है उसके साथ कोई विकार भी चल

रहा है । या तो हीन भावना का विकार है या असुरक्षा की भावना का विकार है । ये विकार ही व्याकुल बनाते हैं, चिन्ता को और बढाते हैं । अपने अंदर और depression पैदा करते है। विपश्यना से देखते-देखते सारा depression दूर हो जायेगा । चिन्ता के साथ ये जो निकम्मे विकार चलत्ते हैं, वे विकार दूर हो जायेंगे, जीवन सुखी हो जायगा ।

प्रश्न:- मैं अपने जीवन में बहुत बडे संकट में फँसा हुं, क्या विपश्यना करने से मेरा संकट हल हो जायगा ?

उत्तर:- जिस संकट में फँसे हो, उस संकट की वजह से जो व्याकुलता है, इस बात की गारंटी है कि उस व्याकुलता के बाहर निकल जाओगे । और जब उस व्याकुलता के बाहर निकल जाओगे तो संकट से बाहर निकलने का रास्ता भी अपने आप खुलने लगेगा । यह नहीं समझना चाहिए कि कोई चमत्कार होगा और विपश्यना में जाते ही तुम्हारे सारे संकट दूर हो जायेंगे । नहीं, तुम्हारी मनोस्थिति बदल जायगी । अब जो संकट के कारण इतने मुरझाये हुये रहते हो _ओर जो निर्णये करते हो वह गलत हो जाता है l सही नहीं होता, क्योंकि सही बात समझ में आती नहीं, अंतमुँखी होने पर सच्चाई को देखते-देखते जब यह व्याकुलता निकल जायगी तब देखोगे कि जीवन ही बदल गया । संकट अपने आप दूर होने लगे । 

प्रश्न- अपने बाद आप किस तरह से इस साधना को आगे बढ़ाऐगे ?

उत्तर:- साधना अपने आप बढेगी, हम कौन बढाने वाले आए । अब तक कैसे बढ़ गई ?  बढेगी ही ! यह शुद्ध रूप में कायम रहेगी तो बढ़ती ही चली जायगी । और पागलपन से लोगों ने इसमें कुछ जोड़-तोड़ करना शुरु कर दिया तो नष्ट हो जायगी । भारत में इसी प्रकार नष्ट हुई, तो हमें उससे बचना है। यह ठीक है कि इतने लोग आकर के साधना करते हैं, उनमें से कुछ ऐसे भी होगे जो आकर सीख लिया, फिर आपना कुछ जोड़-जाड़ करके सिखाना शुरू कर दिया, वे जाने । हमको उनसे झगड़ा भी नहीं करना है । पर एक परंपरा तो ऐसी रहनी चाहिए जो बिल्कुल शुद्ध रूप में अपना काम करे । फिर बाकी जो बिगडा हुआ रूप है, उसकी कोई चिन्ता नहीं। लोग अपने आप देखते रहेंगे- कौन-सा ठीक है, कौन-सा गलत है l  परंतु एक भी मार्ग, एक भी परंपरा शुद्ध नहीं रही तो नष्ट हो ही जायगी ।
इसलिए लोगों को यह ख्याल रखना है- सीखने वालों को भी, सिखाने वालों को भी ; कि इसमें हमें कोई जोड़-तोड़ नहीं करनी है।
परंपरा से जैसे चली आ रही है, ठीक उसी प्रकार हम काम करेगे तो मंगल ही होगा, खूब कल्याण होगा ।

मंगल हो ।

No comments:

Post a Comment

Translate